बड़ा सवाल- पश्चिम की आठ सीटों पर भाजपा के लिये कितना जादू चला पायेंगे जयंत चौधरी
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले राष्ट्रीय लोकदल को मिलाने का कितना लाभ भाजपा गठबंधन को होगा,इस पर सभी की नजर लगी हुई हैं। दरअसल,भाजपा की इस वक्त नजर जाट व पिछली जातियों की वोटों पर लगी हुई है। राष्ट्रीय लोकदल की पकड़ जाटों में मानी जाती है इसलिये पार्टी ने पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न से नवाज कर रालोद मुखिया जयंत चौधरी को यह कहने के लिये विवश कर दिया कि अब वह किस मुंह से भाजपा में जाने से इनकार करें। इससे पूर्व तक वह जरूर यह कहते आ रहे थे कि वह अपनी जुबान कभी नहीं पलटते। अखिलेश से दोस्ती है और रहेगी। पाला बदला और फिर विचार और विचारधारा भी।
राजनीतिक गलियारे में अब यह चर्चा है कि भाजपा ने रालोद को भले ही अपने साथ मिला लिया हो लेकिन यह जरूरी नहीं कि जाट और किसानों का उसे समर्थन मिल जाये। यहां किसान आंदोलन भाजपा सरकार की नाक में दम किये हुए है। जाटों व किसानों के नेता राकेश टिकैत भी बराबर भाजपा सरकार की नीतियों की खिलाफत करते आ रहे हैं और उन्हें जाट व किसानों का समर्थन भी बराबर ही मिल रहा है। ऐसे में यह सवाल खड़ा हो जाता है कि जिस मकसद से भाजपा ने रालोद को अपने पाले में लिया, वह कितना फीसदी पूरा हो पायेगा। जयंत चौधरी भी भाजपा की केंद्र सरकार की नीतियों को लेकर हमेशा से ही हमलावर रहे हैं। इस तरोताजा गठबंधन का असर समाजवादी पार्टी पर जरूर पड़ सकता है।
दरअसल, 2019 के लोकसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 27 सीटों में से भाजपा ने 19 पर जीत का भगवा लहराया था। शेष आठ सीटों पर सपा और बसपा को जीत मिली थी। 2019 में सपा और बसपा ने गठबंधन में चुनाव लड़ा था, जिसका दोनों दलों को इन सीटों पर फायदा मिला और बीजेपी नहीं जीत पाई थी। अब चर्चा करते हैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उन सीटों की जिस पर भाजपा की नजर है। बाकी 19 को वह पूर्व में जीत के कारण अपना मान कर चल रही है।
सहारनपुर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मुस्लिम बहुल्य सीट है। यहां करीब छह लाख मुस्लिम आबादी रहती है। तीन लाख अनुसूचित जाति, 3.5 लाख स्वर्ण और 1.5 लाख गुर्जर यहां रहते हैं। 2019 में गठबंधन के प्रत्याशी बसपा के हाजी फजुर्लरहमान जीते थे। इस बार सपा-बसपा का गठबंधन नहीं है। ऐसे में जयंत चौधरी यहां भाजपा के पक्ष में समीकरण बदल सकते हैं,ऐसा माना जा रहा है।
जहां तक बात नगीना लोकसभा सीट की है तो 2009 में यह लोकसभा सीट बनी थी। तब से अब तक यहां तीन बार चुनाव हुए और तीनों ही बार किसी पार्टी ने रिपीट नहीं किया। यानी नगीना लोकसभा सीट पर किसी एक पार्टी का कब्जा नहीं रहा है। 2009 में नगीना लोकसभा सीट पर पहली बार चुनाव हुआ। इसमें सपा के यशवीर सिंह जीते। 2014 के चुनाव में भाजपा के यशवंत सिंह को जीत मिली और 2019 में बसपा के गिरीश चंद्रा यहां से जीते। यहां सबसे ज्यादा आबादी भले ही मुस्लिमों की है, लेकिन तीनों चुनाव में जीत हिंदू प्रत्याशी की ही हुई है।
अब बात अमरोहा की। इस सीट पर जाट, दलित और सैनी वोटरों की संख्या सबसे ज्यादा हैं। मुस्लिमों की 20 फीसदी आबादी है। माना जा रहा है कि जयंत चौधरी यहां भाजपा के लिए जाट और मुस्लिम वोटरों को साधने का काम कर सकते हैं। 2014 में यह सीट भाजपा के पास थी, लेकिन 2019 के चुनाव में बसपा के कुंवर दानिश अली जीत गए। हालांकि, उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया है और बसपा ने डॉ. मुजाहिद हुसैन को अमरोहा से प्रत्याशी बनाया है।
जहां तक बात बिजनौर की है तो यहां 1.35 लाख मुस्लिम वोटर हैं और 80 हजार दलित हैं। 2014 में भाजपा ने यह सीट जीती थी, लेकिन 2019 में सपा-बसपा गठबंधन का जादू चला और सीट बसपा के मलूक नागर के पास चली गई। इस बार भाजपा के साथ रालोद के आने से समीकरण बदलने की उम्मीद जताई जा रही है। वहीं नगीना की तरह मुरादाबाद सीट पर भी किसी एक पार्टी का कब्जा नहीं रहा है। 1999 से 2019 तक अलग-अलग पार्टी के उम्मीदवारों को जीत मिली। 1999 में जगदंबिका पाल ने अखिल भारतीय लोकतांत्रिक कांग्रेस नाम से पार्टी बनाई और चुनाव जीत गईं। 2004 में सपा का कब्जा हुआ, 2009 में कांग्रेस के टिकट पर पूर्व क्रिकेटर मोहम्मद अजहरुद्दीन जीते और 2014 में यह सीट भाजपा के पास चली गई। 2019 में सपा को यहां जीत हासिल हुई।
उधर, रामपुर सीट पर सपा का कब्जा रहा है। हां, उपचुनाव में यह सीट बीजेपी के पास जरूर चली गई थी। 2019 में सपा के दिग्गज आजम खां ने यहां जीत दर्ज की, लेकिन हेट स्पीच मामले में तीन साल की सजा मिलने के बाद उन्हें यह सीट छोड़नी पड़ी। यहां मुसलमानों की 50.57 फीसदी और 45.97 फीसदी हिंदुओं की आबादी है। 2022 में हुए उपचुनाव में भाजपा के राम सिंह लोधी जीते थे। यह सीट आजम खां का गढ़ मानी जाती है। मैनपुरी सीट सपा का अभेद्य दुर्ग मानी जाती है। मुलायम सिंह यादव यहां से चुनाव जीतते रहे है, लेकिन उनके निधन के बाद यह सीट खाली हो गई। उपचुनाव में अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव चुनाव लड़ीं और जीत गईं। यहां की कुल साढ़े तीन लाख आबादी में से 1.5 लाख ठाकुर, 1.20 लाख ब्राह्मण और एक लाख आबादी मुस्लिम और वैश्यों की है। सपा ने इस बार भी डिंपल यादव को यहां से मैदान में उतारा है। आरएलडी-बीजेपी गठबंधन यहां भी असर डाल सकता है।
संभल की लोकसभा सीट पर 40 फीसदी हिंदू और 50 फीसदी मुस्लिम आबादी है। 1984 तक संभल लोकसभा सीट कांग्रेस का गढ़ रही है लेकिन 2009 में सपा के टिकट पर चुनाव लड़कर शफीकुर्रहमान बर्क ने कब्जा कर लिया। फिर 2014 में भाजपा को जीत मिली और 2019 के चुनाव में शफीकुर्रहमान ने फिर से बाजी मार ली। 2024 में भाजपा- आरएलडी गठबंधन इस सीट का गणित बिगाड़ सकता है।
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