हमारे देश की राजनीति में किसान कढ़ी पत्ते की तरह है, जिसे खाना बनाते वक्त सबसे पहले डाला जाता है. लेकिन खाना खाते वक्त उसे सबसे पहले निकालकर बाहर फेंक दिया जाता है. हमारे देश के नेता किसानों का इस्तेमाल अक्सर अपनी सहूलियत और ज़रूरत के हिसाब से करते आए हैं. जब जरूरत होती है तो हमारा देश कृषि प्रधान देश बन जाता है, लेकिन जैसे ही ज़रूरत पूरी हो जाती है, किसानों को सुला दिया जाता है. और जब-जब ऐसा होता है, किसान अपने खेत खलिहान छोड़कर शहरों का रुख करते हैं. दिल्ली के दरवाजे पर खड़े किसान भी यही कर रहे हैं । कौन हैं ये लोग. कहां से आते हैं. क्यों ये हमारे चमचमाते देश पर टाट का पैबंद लगाते हैं. कोई कह रहा था ये किसान हैं. ये हमारा अभिमान हैं. मगर किसने कहा. याद नहीं आ रहा है. याद आया चुनावी घोषणा पत्र में पढ़ा था इनके बारे में. वहीं तो तस्वीर देखी थी इनकी. आज बहुत दिनों बाद फिर इनके नाम के जयकारे सुनाई दे रहे हैं. सुनाई दे भी क्यों नहीं? खेत खलिहान छोड़ कर दिल्ली के दरवाज़े तक जो पहुंच आए हैं. पुलिस प्रशासन सरकार सभी घबराए हुए हैं. कहीं दरवाज़ा लांघ कर ये दिल्ली में दाखिल ना हो जाएं. और बस पिछले हफ्ते भर से यही घबराहट में सब जी रहे हैं । किसान का बेटा खुदकुशी कर लेता है. कर्ज के बोझ तले किसान खुदकुशी कर लेता है. फसल बर्बाद होने पर किसान की बीवी दुनिया छोड़ देती है. बेटी का इलाज कराते-कराते थक चुका किसान बाप फांसी के फंदे पर झूल जाता है. शादी की उम्र पर गरीबी का हल चलता है तो किसान की बेटी मायका छोड़ने की बजाए दुनिया ही छोड़ देती है. फसल की वाजिब कीमत नहीं मिलती तो घर का चूल्हा दो-दो दिन तक ठंडा रहता है. बाजारी बिचौलिए हक मर लेते हैं तो अपना ही निवाला मुंह से दूर हो जाता है. गेहूं खुद उगाता है. पर घास की रोटी खाता है. गाय-भैंस पाल लेता है, पर खुद के बच्चों के हिस्से में दूध नहीं आता. सब्ज़ी उगा तो लेता है, पर रोटी नमक और तेल के साथ खा कर गुज़ारा करता है ।।
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